एक वर्ष बीत
गया कन्हैया को देशद्रोही कह कर गिरफ्तार किया गया था पर आज भी न्यायालय चालान पेश
किये जाने के इंतज़ार में है। ये अभियुक्त के लिए भी जरूरी है कि उसके खिलाफ लगाए गए इल्जाम का जबाव देने का उसे
मौका मिले। आज भी आम आदमी ये जानना चाहता है
कि क्या कन्हैया ने नारे लगाए थे। बहस को यहीं तक सीमित करवा देना राजनैतिक
विजय हो सकती है पर कानून की नहीँ। हालाँकि
देशद्रोह के मुकद्दमे विनायक सेन , हार्दिक
पटेल व सैंकड़ो नागरिकों पर चले हैं। इसके बाद भी यथासिथ्ति चिंता का विषय है आने वाली
सरकारें भी इसका गलत इस्तेमाल कर सकती हैं।
आज के माहौल
में जहां अविश्वास और दौलतमंद होने की मानव की दौड़ बढ़ी है उसने तर्क और तार्किकता को कहीं कोने में सडांध
मारने को छोड़ दिया है। जिसके उदाहरण के रूप में सड़क पर न्याय होना शुरू हो गया असंतुष्टता
ने भी अपना बखूबी काम किया। ये जल्दबाज़ी कि
प्रवृति का बखूबी इस्तेमाल किया गया और जे एन यू इसका शिकार बना। राजनैतिक दलों की
सबसे बड़ी सफलता नागरिकों को गैर राजनीतिक बनाने से हुई है। सवाल हमेशा रहेगा जब राजनीती
ही एक नागरिक के जीवन से जुडी हर क्रिया को
निर्धारित करती है तो वो राजनीती क्यों न करे, क्यों राजनीति को किसी खास वर्ग के लिए
ही छोड़ दिया जाये।ध्यान रहे इसे अपने तक सरंक्षित रखने के लिए राजनैतिक जन्तुओं द्वारा इसे गन्दा व् घृणित
दर्शाया जाता रहा है ।
राजनीति का चुनाव केंद्रित ही हो जाना और लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल मूलभूत
सवालों से भटकाने के लिए करना भविष्य के लिए भयावह हो सकता है क्योंकि लोगों ने ही
मिलकर लोकतंत्र को अपनाया है जिसे संविधान की प्रस्तावना सुरक्षित करती है। संवाद की सम्भावनाये खत्म कर देना लोकतंत्र की पहचान
नही हो सकती। लोकतंत्र के विकास के लिए भिन्न भिन्न विचारधारा का सम्मान और अभिव्यक्ति
की स्वतन्त्रता का होना अवश्यम्भावी है। ये इस लिए भी जरूरी है क्योंकि सत्तापक्ष साधारण
बहुमत पर ही सरकार बनाता है पर विपक्षी को भी नागरिकों का समर्थन रहता है।
मामला न्यायालय में विचारधीन है कोई नई टिप्पणी नहीँ हो
सकती है। कानूनों की व्याख्या करने का एकमात्र अधिकार क्षेत्र शीर्ष अदालतो का बनता
है । केदारनाथ वर्सस बिहार मामले में न्यायालय ने १२४ A को परिभाषित किया है और किसी भी क्रिया को उसके
बाद हुई हिंसा से जोड़ा है । यदि परिभाषा चुनी हुई सरकार के प्रति अवमान की है तो किसी का समर्थन करने और उकसाने में भी अंतर है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी संविधान ही अपने
में समेटे है क्योंकि लोकतंत्र में हर इंसान को अपनी बात रखने का अधिकार है यही लोकतंत्र
की खूबसूरती है। देशभक्ति की बुनियाद इतनी
कमजोर कैसे हो सकती है जो सिर्फ भारतमाता की जय नारे तक ही जाकर सीमित हो जाती हो चाहे
उसकी आड़ में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना अपने निजी स्वार्थ के लिए बखूबी चल रहा
हो। दलितों, आदिवासियों , महिलाओं , अल्पसंख्यकों
इत्यादि पर जुल्म करना कितना न्यायोचित है महज इसलिए की देशभक्ति के नारे लगा दिए और
देश भक्ति की परीक्षा पास कर दी। इस विचार पर चलते हुए और विपरीत समझ वाले को खारिज़
कर देना राष्ट्रवाद नही बल्कि उपहास है।
ये असहिष्णुता
की चरम सीमा है जहां पर सरकार की बात पर सहमति
रखने और अनुसरण करने को ही देशभक्ति की व्याख्या बना देना लोकतंत्र के भविष्य के लिए
खतरनाक हो सकता है। बुनियादी सवाल उन पर भी उठता है जो सैनिकों के नाम की राजनीती तो
कर जाते हैं पर खुद सेना में हो रहे घोटालों में लिप्त पाए जाते हैं। चुनावों से पहले
झूठे वादे करना और देश की जनता को सपने दिखा
कर मुर्ख बना देना क्या कहलाया जायेगा । उन प्रतिष्ठित उद्योगपतियों को क्या कहा जिन्होंने
खूब लूट खसौट की ओर पकड़े जाने के डर से देश
ही छोड़ दिया।
सरकारों का
रवैया भी अपनी आलोचना सुनने का रहना चाहिए।
जल्दबाज़ी में सवाल पैदा करने वाले पर प्रहार कर देना आवाज़ को दबा देना मात्र
है जिसका भविष्य के लिए कोई बेहतर परिणाम नही निकल सकता। इसका आपातस्तिथि में गलत इस्तेमाल
भी किया जा सकता है। भावनाओ में बह कर और सवालों के जवाब ढूंढे बिना आगे बढ़ना उस
शिखर बिंदू पर खड़े होना है जहाँ से दुबारा फिसलने का खतरा बरकरार है।
विक्टर ढिस्सा , अधिवक्ता
dhissavictor@gmail.com