Wednesday 23 January 2013

मेरे जहां की दास्तां

झूठ कहते हैं वो छत पत्थरों से बनती है
खुला आसमां भी बुरा सहारा तो नहीं
लगाते होंगे दीवारों पे वो सोने की परत
सर्द हवाओं की दीवारों के होते हुए हम भी बेसहारा तो नहीं

वो जन्म लेते हैं जिन्दगी जीने के लिए
जिन्दगी हमें जीती है जन्म देने के लिए
मौत भी पे मातम उनके तमाम होता है
मेरे मरने भर से भी मौत नाम बदनाम होता है

उन्हे रास्ते में अपने पत्थर रास नहीं आता
इन्ही पत्थरों के बीच मजा हमें मखमली घास का है आता
उनके कुत्ते की भी किस्मत सा भाग नहीं है
मैं हर शाम भूखा रह जाता वो चांदी की थाली में भर-भर के है खाता

उनकी गाड़ी के पहिए से बुरे मेरे पांव हो चले हैं
खून दोनो ही कातिल समान लिए हुए हैं
वो पिछले मोड़ पे गरीब को कुचल आए हैं
मेरे पैरों पे रंग मेरे खून का ही चढ़ा हुआ है

Alexander Dhissa
Tuesday, 22 January 2013

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