Sunday, 13 May 2012

Indian Education is it up to the mark ????


इक्कसवीं शताब्दी में हर चीज हर तरीके से नई नजर आ रही है चाहे वो तकनीकी रुप से हो सामाजिक रुप से या फिर राजनीतिक रुप से हर क्षेत्र में कहीं ना कहीं बहुत बड़े बदलाव आए हैं ये सवाल मायने नहीं रखता कि वो बदलाव सही है या गलत पर इतना जरुर है कि वो चीजें पहले से कुछ बदल गई हैं और वक्त के साथ हर सोच, ढांचे ओर बनावट में परिवर्तन आता है यह प्रकृति के नियम के अनुरुप ही है । बदलाव की बात की जाए तो देश की शिक्षा के क्षेत्र में भारी बदलाव और शोर शराबा देखने को मिला है नतीजा आज हर तरफ अंग्रेजी में शिक्षा की जरुरत महसूस की जा रही है । इंग्लिश पढ़ाने वाले स्कूलों को अधिक बढाए जाने की मांग चल रही है और जो है उनमे मार-काट से कुछ कम परन्तु अभिभावकों की भयानक होड़ लगी है अपने बच्चों को दाखिला दिलवाने के लिए। सही भी है कि आज के प्रतिस्पर्धी दौर में कोई मां-बाप क्यों चाहे कि उनका बच्चा पीछे रह जाए। हर दिन प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है ओर हर साल एम.ए, एमफिल, एलएलबी ओर कई अन्य तरह के प्रोफेशनल कोर्स करके छात्र सड़कों की बाट जोह रहे हैं सिर्फ एक अदद सी नौकरी पाने के लिए।

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अभी हाल ही के प्रकरण में दिल्ली के स्कूलों ने शिक्षा निदेशालय के नियमों की धज्जियां उड़ाकर जिस तरीके से 500 रुपए या अधिक के फार्म (प्रोस्पेक्टस चिपका कर) बेचे हैं ओर इसके बाद भी जिस तरीके से 30 हजार से 1 लाख तक गटक गए सिर्फ नर्सरी की पहली लिस्ट में बच्चों का नाम लाने के लिए, से ही स्थिति का अंदाजा हो जाता है । इसके बावजूद भी लाइन ओर एप्लाई करने वालों की कोई कमी नहीं थी जो चाहकर या ना चाहते हुए भी इस तरह के व्यापार में अपने बच्चों की किस्मत का ताला खुलने की उम्मीद रखे हुए हैं। और उन अभिभावकों को गलत कहना भी उचित नहीं लगता क्योंकि आज के समय में आप का बच्चा हर तरीके से परिपूर्ण होना चाहिए किसी उन्नीस बीस की कोई गुंजाइश नहीं है । अच्छी शिक्षा अच्छे भविष्य की गारन्टी अगर ना भी हो तो एक बेहतर सपने और उम्दा आत्मविश्वास का घोतक तो जरुर है ।

अभी हाल ही में मेरा एक मित्र ओड़िशा से प्रोफेशनल डिग्री लेकर दिल्ली में नौकरी के लिए आया वह यहां के प्रोफेशनल्स के बीच अपने लिए जगह तलाश रहा है और अब इसमें क्या कहें कि वो अंग्रेजी मीडियम के स्कूल का नहीं है और अंग्रेजी पत्रकारिता में भविष्य तलाश रहा है । कहा जाता है कि जो एजुकेशन मीड़ियम बचपन से पढ़ा हो उसे एक उम्र के बाद बदलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाता है डॉन फिल्म में तो ड़ॉन को एक आध बार पुलिस पकड़ भी लेती है किन्तु इस मामले में सफलता हाथ लगना एकदम भी मुमकिन नहीं माना जाता । यह एक की बात नहीं हर साल लाखों की संख्या में प्रतियोगी परिक्षाओं में बैठने वाले छात्रों की कहानी भी इससे जुदा नहीं होती होगी ।

सरकारी स्कूलों में पढ़ाकर कोई मां-बाप अपने बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहते और बड़े होने पर उसके लिए किसी किस्म की जिल्लत या अत्यधिक प्रयास करने का कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहते । चंद सरकारी, केन्द्रीय विघालयों ओर स्कूलों को अगर छोड़ दिया जाए तो बाकियों का हाल अति से भी बुरा है । इसे क्या कहेंगे कि हिमाचल प्रदेश के लगभग 99 प्रतिशत महाविघालयों में बीए के दौरान किसी एक विषय में ऑनर्स का कोई प्रावधान ही नहीं है जबकि अन्य जगह के बच्चे एक विषय में कॉलेज के दोरान ही महारत हासिल कर लेते हैं ।

हिमाचल के ही लाहौल- स्पिती जिला जोकि सर्दियों में 6 महीने बर्फ से ढ़के होने की वजह से शेष विश्व से कटा रहता है में तो पढ़ाई का अंदाज ही निराला है वहां उन 6 महीनों में यदा कदा ही प्राइमरी स्कूलों में अध्यापक पहुंचते हैं और कहीं अध्यापक आ भी जाए तो छात्र नदारद पाए जाते हैं। वहां पढ़ाई की बात करना कहने भर की बात है और अच्छे शिक्षा स्तर की ढ़ींग हांकना तो जैसे अंधेरे में प्रकाश की बात करना है । अब आप ही कहें कि आप उस छात्र से क्या उम्मीद लगाएंगे जिसने बर्फ होने की वजह से स्कूल ना लगने के कारण शिक्षा के महत्वपूर्ण कदम ही नहीं चले जिससे उसके भविष्य की नींव पड़ती है । इसे यूं देखिए कि जब पौधे की नींव में ही पानी नहीं ड़ाला गया तो उसके बड़े होने पर चाहे उसे मानसून के नाम कर दीजिए या फिर नदी का रुख ही उसकी और मोड़ दीजिए वो शायद ही फल दे सके ।

इसी क्षेत्र में एकमात्र महाविघालय में दो वर्ष पहले पढ़ने वाले छात्रों की संख्या केवल 70 थी इससे दोगुना तो दिल्ली के लक्ष्मी नगर और मुखर्जी नगर में कुकुरमुतों की भांति उपजे प्राइवेट कोचिंग संस्थानों में ही मिल जाएंगे । ऐसा नहीं है कि उस उम्र वर्ग के छात्र घाटी में नहीं है बल्कि अच्छी शिक्षा के लिए दुसरी जगहों का रुख कर चुके हैं । छात्र अध्यापकों की कमी का रोना रोते हैं अध्यापक छात्रों की कम संख्या का । पता ये नहीं चल पाता कि कौन सी बात सही है, शायद दोनो ही । हिमाचल प्रदेश देश में शिक्षा के मामले में अग्रणी राज्य होने के बावजूद ऐसे उदाहरण पेश कर रहा है तो बाकि राज्य किस दलदल में है ये पता करने के लिए वहां (दलदल में) खिले कमल पर भंवरे सा मंड़राने की जरुरत नहीं सहज अंदाजा हो जाएगा

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्धवारा एक जर्नलिज्म का संस्थान चलाया जाता है जिसकी एक ब्रांच दिल्ली में जवाहरलाल नेहरु विश्वविघालय के पास ( जेएनयू बताना पड़ा क्योंकि बहुत लोगों को नही पता) है और दूसरी ओड़िशा के ढेंकानाल में है । सूचना प्रसारण मंत्रालय के संस्थान की ही सूचना नहीं है लोगों के पास तो मंत्रालय दूसरी सुचनाएं जनता तक कैसे पहुंचाएगा । आईआईएमसी का नाम लेने पर लोगों को आईआईएम कोलकता समझ में आता है अब उन्हे कैसे बताया जाए कि आईआईएम जर्नलिज्म कॉलेज नहीं है । वहीं ओडिशा वाला संस्थान तो 1993 से 2-3 (एक अध्यापक और दो लाइब्रेरियन ) अध्यापकों द्धवारा चलाया जा रहा है बाकि वहां स्टाफ है जोकि कांन्ट्रेक्ट बेस पर पिछले 19-20 सालों से सेवाएं दे रहा है। ये हाल है राष्ट्रिय महत्व के संस्थानों ओर स्कूलों का ।

सरकारी ओर सरकारी सहायतारत् संस्थानों का ये हाल देखकर कौन अभिभावक चाहेगा कि उनके बच्चे इस शिक्षातंत्र का हिस्सा बनें उन्हे तो यही रास्ता नजर आता है कि जाकर निजी संस्थानों की ललकती जीभ को किसी तरह शांत कर दिया जाए बस । शिक्षा के अधिकार के अंतर्गत सरकार ने स्कूलों में बीपीएल छात्रों के लिए एक कोटा तो निर्धारित कर दिया है जो कि सुहावना और आशा भरा निर्णय तो लगता है पर सरकार शिक्षातंत्र में सुधार के तरीके से हर बार बच निकलती है क्यों नहीं कोई प्रयास इस और किया जा रहा । क्यों हर बार सिर्फ योजनाएं बना कर छोड़ दी जाती है क्यों नहीं उनकी बेहतरी का प्रयास किया जाता । वरना तो यही होगा कि एक सरकारी संस्थान में पढ़ाने वाले अभिभावक अपने बच्चों को सरकार द्धवारा दिए जा रहे पैसों से निजी संस्थानों में ही दाखिल करवाएंगे ।

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