Sunday, 13 May 2012

क्या डॉ अंबेडकर तब भी बौद्ध बनते ?

बाबा साहेब ड़ॉ. अंबेडकर के दलितों के स्वावलंबन के लिए उठाए गए कदमों में से एक महत्वपूर्ण और महत्वाकांशी कदम उन्हे धर्म परिवर्तन के लिए प्रोत्साहित करना था । उनका मानना कि हिन्दुओं में बुराई नहीं बल्कि उनके धर्म में बुराई है जो कहीं भी इंसान से इंसांन की बराबरी की बात नहीं करता इस परिवर्तन की वजह बना। इसीलिए उन्होने सभी धर्मों की पड़ताल के बाद पाया था कि सिर्फ बौद्ध धर्म ही दलितों और शोषितों के स्वाभिमान और अस्मिता की रक्षा कर सकता है । परन्तु यहां शायद डॉ. साहेब चूक गए थे क्योंकि इस देश की सच्चाई ये है कि कोई भी धर्म, संम्प्रदाय और विश्वास जन्माधारित जातिवादी विभेद से बचा नहीं है जिसमें बुद्ध धर्म भी शामिल है । सत्ता पर काबिज और अपना वर्चस्व बनाए रखने के लोभी आर्थिक रुप से मजबूत चंद समुहों ने धर्म को अपनी पनौती बना लिया है ।

और जैसा कि बाद के वर्षों में हर धर्म में बदलाव आए, बुद्ध धर्म में भी भारी बदलाव देखने को मिले जिसमें बुद्ध को विष्णु के अवतारों में एक मान लेना और महात्मा बुद्ध जो कि मूर्ति पूजा के प्रबल विरोधी रहे हैं कि विश्वभर में सबसे बड़ी मुर्तियां स्थापित कर देना है । बुद्ध धर्म विशेषकर महायान का आज पूरी तरह से हिन्दूकरण हो चुका है, बुद्ध धर्म अपने स्थापित सामाजिकी सरोकार से बहुत दूर जा चुका है जिसमें समाज का जन्माधारित जातिगत विभेद भी शामिल है ।

भले ही देश में धर्मांतरण करके बौद्ध बनने का शोर शुरु हो रहा हो लेकिन सच्चाई ये है कि बौद्ध धर्म हिन्दु धर्म की छायाप्रति बन चुका है । हिमाचल प्रदेश के अति दुर्गम कबायली क्षेञ लाहौल स्पिती जिला की घटना इस का एक जीता जागता सबूत है ।स्पिती उपमंण्ड़ल एक शत- प्रतिशत बौद्ध धर्मावलंबी क्षैञ है जहां कहने को तो बुद्ध धर्म के अनुयायी रहते हैं किन्तु ये हिन्दु धर्म की धर्म की असमानता को सहेजे हुए है । इस क्षेञ में समाज का विभाजन हिन्दु धर्म के अनुसार ही जन्म आधारित है ।

यहां पर समाज को काम के आधार पर चार वर्गों में बांटा गया है.– नोनो, फल्पा या थल्पा, गरा या दोंबा या ज़ोबा तथा बेदा या बेता । नोनो और फल्पा को सामाजिक सोपान के पदक्रम में ऊंची प्रस्थिति प्राप्त है तो मोन कहे जाने वाले गरा, दोंबा या जोबा तथा बेदा या बेता को हिन्दू समाज की भांति दलित का दर्जा प्राप्त है । नोनो को शासक माना जाता है और फल्पा तथा थल्पा आम प्रजा और कृषक वर्ग। जोब़ा / गरा/ दोंबा का काम लोहे का है जबकि बेदा या बेता संगीतकार, दूत आदि के कार्य करते हैं। जातिय पदक्रम में लुहार अपने को बेता से ऊंचा मानते हैं। जाति का आधार जन्म तो है लेकिन छुआछुत हिन्दू समाज जितना कठोर नहीं है ।

बुद्ध धर्म में समा चुके जाति विभेद का नमूना अभी हाल के वर्ष में देखने को मिला जब 2007 में कुछ नीची कही जाने वाली जाति के बच्चों को कर्नाटक के मठ में बौद्ध भिक्षु की शिक्षा ग्रहण करने के लिए चुना गया । चुने जाने के बाद उन 16 बच्चों (8 से 28 वर्ष) को कर्नाटक के मठ भेज़ दिया गया, इसी इलाके के तथाकथित ऊंची जाति के बच्चे भी उसी मठ में रहते हैं उनसे यह सहन नहीं होना था और हुआ भी नहीं कि ये दबे हुए निचले तबके के लोग उनकी बराबरी करें । तो हर तरह से उन बच्चों के घरवालों को ड़राया-धमकाया तथा उनका सामाजिक बहिष्कार तक किया गया और अंतत इस बात के लिए मज़बूर किया गया कि उन छाञों को वापिस बुलाना पड़ा । “संविधान के सामाजिक अन्याय” पुस्तक में इस घटना का विस्तृत वर्णन है, के लेखक तथा जनजातिय दलित संघ के अध्यक्ष ने लंबे संघर्ष और धर्म गुरु दलाईलामा से मिलकर उन छाञों को उसी मठ में शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार दिलवाया ।

निश्चित तौर पर ये एक बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि इस आंदोलन के असफल होने की सूरत में उच्च शिक्षा (मठ में पढ़ने) पर उच्च जातिय लोगों का एकाधिकार हो जाता और बौद्ध समाज हजारों साल पीछे चला जाता । इस उपलब्धि पर संविधान के सामाजिक अन्याय में लिखा है-“ यह जीत कितनी महत्वपूर्ण है इसका निर्णय तो भविष्य करेगा लेकिन इतना अवश्य है कि इसने जातिय आधार पर लामा बनने की परंपरा स्थापित करने के षड़यंञ को नाकाम कर दिया । इस संघर्ष में हार की स्थिति में निम्न जाति के लोग लामा बनने के लिए भविष्य में निषिद्ध कर दिए जाते और इस घटना को पूर्व द्रिष्टांत के बतौर पेश किया जाता । इस प्रकार हिन्दू धर्म की तरह धर्म के प्रबंधन की जातिगत ठेकेदारी बुद्ध धर्म में रीतिबद्ध हो जाती और अछूत बौद्धों का गोम्पा में प्रवेश निषिद्ध कर दिया जाता ”। दलितों के लामा बनने के विरोध के दो बड़े कारण हो सकते हैं, पहला तो हिन्दुओं द्धवारा बड़े स्तर पर धर्म परिवर्तन जिससे लोगों ने मुर्तियां तो बदल ड़ाली पर सोच नहीं और दुसरा बुद्ध धर्म का धीरे धीरे हिन्दु धर्म में होता जा रहा विलय ।

ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि धर्मांतरण के पक्ष और विपक्ष के शोर में दलितों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में क्या कोई मुलभूत परिवर्तन आ रहा है ? क्योंकि डॉ. अंबेड़कर के धर्म परिवर्तन का साफ – साफ तर्क यही था कि दलितों और पिछड़ों की भलाई और उनके स्वाभिमान की रक्षा के लिए धर्म परिवर्तन किया जाना अनिवार्य है । स्पिती की इस घटना के बाद अगर बाबा साहेब निर्णय लेते तो शायद उनके द्धारा चुना जाने वाला धर्म बुद्ध धर्म भी ना होता । यह मामला इस और भी इशारा करता है कि धर्म कोई भी हो, उसके कर्ता – धर्ता कोई भी हों वो कभी भी बराबरी की बात नहीं करता । इससे तो ये अर्थ साफ निकलता है कि दलितों का कोई भी धर्म नहीं या उनके लिए कोई धर्म बना ही नहीं है फिर भी वे उसके नशे में उंघटा रहे हैं । इसीलिए कार्ल मार्क्स का धर्म को अफीम कहना सही जान पड़ता है ।

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