Sunday, 13 May 2012

Sanskrit is the language of Dalits

सामाजिक विषमताओं का भाषाई उच्चारण


सामाजिक विकास की अपनी गति और दिशा होती है । यदि समाज जातिय विभाजन और सामाजिक असमानताओं का शिकार हो तो यह विषमताएं उस समाज के सांस्कृतिक स्वरुपों में भी प्रतिध्वनित होती हैं । अब सामाजिक विषमताओं के शिकार उस समाज की भाषा, साहित्य, कला और लोक व्यवहार भी विभेद की भाषा से अछूता नहीं रहता है । अपने विकास के सैंकड़ों वर्षों की विकास यात्रा में हिमाचल प्रदेश के ठंडा मरुस्थल कहलाने वाले लाहौल स्पिती ने ऐसे ही सांस्कृतिक विषमताओं वाले भाषाई एवं सांस्कृतिक आधार पर विभाजित समाज की रचना की है । जातिय आधार बंटे समाज ने भाषा का एक ऐसा अदभुत विभाजन पैदा किया जिसने दलितों की नई भाषा चिनलभाशे का निर्माण किया । एक समय के उच्च वर्णों द्धारा बोली जाने वाली संस्कृत का ही एक रुप चिनलभाशे नई वर्ण व्यवस्था, नए जातिवादी विभाजन की प्रतिनिधि भाषा बनकर सामने आई है ।

जहां एक तरफ तो हिन्दु धर्म के धार्मिक ग्रंथ मनु स्मृति के अनुसार शुद्रों को वेद सुन लेने ओर पढ़ लेने भर में गर्म तेल कान में ड़ालने और पेट काट देने तक का प्रावधान था उसी समाज में इस तरह के अंचभित कर देने वाले भाषाई विभेद का पता चलना एक बडी चर्चा को जन्म देता है । इस भाषा के उदय का तो पता ठीक से नहीं चल पाया है पर इस के अस्तित्व को भाषाविद ड़ॉ. डी डी शर्मा ने 1980 में दुनिया के सामने लाया पर । ड़ॉ शर्मा संस्कृत के विद्भान थे और उन्होने पंजाब विश्वविघालय के दौरान पहाड़ी भाषाओं पर भी सराहनीय कार्य किए हैं । उन्होने पाया कि संस्कृत की तरह चिनलभाशे में भी तीन लिगों स्ञीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंगों का प्रयोग होता है। वर्तमान में यह भाषा हिमाचल प्रदेश के जिला लाहौल - स्पिती के उपमण्ड़ल लाहौल के शूलिंग गांव से लेकर तिंदी तक के 100 किलोमीटर में फैले क्षेत्र के 35 स्थाई –अस्थाई गांवों के एक विशेष समुदाय द्भारा बोली जाती है ।

ड़ॉ शर्मा ने इस भाषा को संस्कृत की सीधी वंशधर माना है और वह इस भाषा को “ प्राच्य भारतीय आर्य ” भाषा के रुप में देखते हैं । उनका ये कहना है कि इस भाषा में प्रयुक्त संज्ञा, सर्वनाम और क्रिया आदि संस्कृत के अनुरुप ही हैं । और संस्कृत व्याकरण की सभी शुद्धियां इसमें मौजूद हैं । पश्चिमी हिमालय क्षेञ का जनजातिय समाज जहां पर तिब्बती–हिमालय परिवार की भाषा बोली जाती है वहां संस्कृत परिवार की बोली चिनलभाशे का अस्तित्व अचंभिक कर देने वाला है। ये क्षेञ वैसे तो कई प्रकार से जिझासा भरा क्षेञ रहा है इन जिझासाओं में एक अन्य विशेष प्रकार की जिझासा की वृद्धि होती है वह है इसका भाषाई अनुठापन। साधारणत: भाषा क्षेञ या प्रजाति आधारित होती है । लेकिन यहां भाषा जाति आधारित है अर्थात उच्च और निम्न जातियों की भाषाऐं अलग- अलग हैं । यहां एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि लाहौल के ब्राहमण भी मंञ आदि चिनलभाशे में ही पढ़ते है, जबकि उनकी संपर्क भाषा इससे अलग है । क्या यह एक बड़ा प्रश्न नहीं है कि भाषा शासञों तथा देवताओं की देववाणी और बोलने वाले अछूत?

सभ्य समाज में जिन्हें दलित या हरिजन कहा जाता है वही लोग लाहौल स्पिती में सवर्णों की समझी जाने वाली भाषा संस्कृत बोलते हैं यह एक खुली चुनौती है उस समाज के विद्धानों के लिए जिस समाज की नींव ही भाषा संबंधी विभेद पर टिकी हो उस समाज में दलितों का ब्राहम्णों की भाषा बोलना निश्चय ही कई सवाल पैदा करता है । उससे भी बढ़ कर ब्राहम्णों का दलितों की भाषा (संस्कृत) में ही मंञोचारण आदि करना ।

भारतीय संविधान की विड़ंबना कहा जाए या फिर इस ढेड़ अरबी राष्ट्र की सामाजिक विघटना जहां आज भी सामाजिक स्तरीकरण का बीज समाज के हर वर्ग में जड़ों तक समाया हुआ है । 65 वर्षों के तमाम वादों और उठापटक के बाद भी समाज के वर्गों में बड़े होने का गुमान और छोटे होने की हीनता कहीं भी कम नहीं हुई है । बल्कि ये चीज जरुर हो गई है कि समाज कई ओर वर्गों में टूट गया है । आदिम काल से चले आ रहे जातिवाद नुमा वर्ण विभाजन ने सामाजिक सरोकारों को दरकिनार तो किया ही है बल्कि एक समुदाय विशेष की तरक्की व विशेषाधिकारों को भी रोके रखा है।

इस भाषा तथा इसके अस्तित्व का यदि गहन अधय्यन किया जाए तो भारतीय समाज व्यवय्था या सामाजिक संरचना के जाति प्रथा या सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धांतों पर भी प्रश्ऩ चिन्ह लगता है । क्योंकि अधिकतर विद्दानों का मानना है कि जाति प्रथा आर्यों की देन है । यदि यह सही मान लिया जाए तो ब्राहणों की भाषा संस्कृत बोलने वालों की सामाजिक प्रस्थिति इन क्षेत्रों में निम्न जातियों की क्यों बनी क्योंकि ब्राहण आर्यों की समाज व्यवस्था में शीर्ष स्थान पर विघमान हैं। इन समाजों में यह सब क्यों, कब और कैसे हुआ होगा पर अभी कोई काम नहीं हुआ है कि संस्कृत या श्रेष्ठ भाषा बोलने वाले अवर्ण तथा निम्न कोटि की भाषा बोलने वाले सवर्ण कैसे बन गए । निश्चय ही संस्कृत भाषी दलितों का ये दावा वर्षों से चली आ रही जन्माधारित जातिवादी विभेद की सामाजिक व्यवस्था को उलट-पुलट कर रखने के लिए काफी है ।

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