अभी हाल ही में एक आरटीआई द्वारा जो कि हमारी तत्कालीन राष्ट्रपति के कार्यकाल के समाप्त होने के कुछ समय पहले आई है ने श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के निष्पक्ष कार्यकाल को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है ।
इसके द्वारा मालूम हुआ कि देश की पहली महिला राष्ट्रपति होने का गौरव प्राप्त करने वाली पाटिल ने अपने पूरे कार्यकाल में सिर्फ विदेश यात्रा पर देश का 205 करोड़ धन लुटा दिया । हालांकि राष्ट्रपति ने किसी राष्ट्रीय महत्व के कार्य पर कोई निर्णय लिया हो याद नहीं आता किन्तु पहली महिला सेनाध्यक्ष, पहली उर्मदराज महिला वायुसेना सवार, पहली उर्मदराज महिला समुद्री बेड़े में यात्रा जैसे कारनामें अपने नाम दर्ज जरुर कर दिए हैं ।
अब जहां एक और देश की तमाम बड़ी छोटी राजनीतिक पार्टियां अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनवाने के लिए घिसी जा रही हैं एक मात्र महिला शासक (सर्वोच्च पद) ने महिलाओं की नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़ा कर दिया है। इस बात की तो दीगर चर्चा है कि महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों चाहे वो ग्राम पंचायत स्तर पर हो या फिर राज्य या देश के स्तर पर, निर्णय का अधिकार अधिकतम केसों में उनके पति या पिता पर ही रहता है या यूं कहें कोई पुरुष ही करता है ।
प्रामाणित कुछ यूं किया जा सकता है कि शांतिपूर्ण संपन्न दिल्ली नगर निगम के चुनावों में खड़ी कुल 277 महिला प्रत्याशियों में 8 तो बिल्कुल ही अनपढ़ थी बाकी भी हाईस्कूल या उससे कहीं थोड़ा ऊपर नीचे पढ़ी लिखी हुई थी ओर स्नातक स्तर तक के प्रत्याशियों का अनुपात तो सोच के स्तर से बिल्कुल ही कम निकला अब इन्ही में से तीन मेयर चुनी भी जा चुकी हैं। हालांकि एक स्नातक का भी आज के दौर में बौद्धिक स्तर पर कोई विशेष योगदान नहीं दिखता तो ये कम पढ़ी- लिखी महिलाएं कहां ब्लाक, राज्य और देश चलाने का दंभ भरे। ये लोग तो सीधे सीधे किसी पुरुष के निर्णयों पर निर्भर करेंगी।
एक सर्वे के अनुसार महिला शासित प्रदेशों में महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामले अधिक बढ़े हैं दिल्ली, पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां महिलाएं सबसे ज्यादा असुरक्षित है और तीनों ही राज्यों में महिला नेतृत्व कर रही हैं (उत्तरप्रदेश को छोड़ कर जहां हाल ही में तख्तापलट हुआ है, पर उतरप्रदेश ऐसे मामलों में हमेशा अव्वल दर्जे पर रहा है)। मुख्यमंत्री पद के अलावा महिलाएं कई राज्यों मे राज्यपाल जैसे पदों पर भी आसीन है पर वहां भी महिलाएं कटघरे में ही नजर आती हैं। ऊपर से महिला होने के बावजूद महिलाओं के साथ हुए ब्लात्कार पर सुश्री ममता बेनर्जी ने जिस तरीके का गैरजिम्मेदाराना बयान दिया था उसकी पुरजोर निंदा भी कम है । ओर किसी भी तरीके से मायावती , ममता बेनर्जी और शीला दीक्षित के द्वारा चलाए गए या चलाए जा रहे शासन को जायज नहीं ठहराया जा सकता।
राष्ट्रपति की यात्राओं में खर्च होने वाले पैसे की मुख्य वजह उनके परिवार का हर दौरे में साथ हो लेना है । ये कहीं ना कहीं समाज के उस ढ़ांचे का ही चाहा-अनचाहा पहलु हो सकता है जिसमें बंध कर महिलाएं अधिकतर केसों में अपने परिवार के साथ ही किसी कार्य को अंजाम देती है । राजनीतिक दौरे का पारिवारिकरण होना उसी मानसिकता का हिस्सा हो सकता है। वहीं हमारी पहली महिला राष्ट्रपति अपने पांच साल के कार्यकाल में किसी विशेष मुद्दे पर लिए निर्णय को लेकर तो चर्चा में नहीं रहीं (महिला सशक्तिकरण तो रहने ही दीजिए) पर कार्यकाल समाप्ति की ओर बढ़ते ही विदेश यात्रा और पुणे में उनके लिए बन रहे सरकारी आवास को लेकर खूब नकारात्मक चर्चा बटोर बैठीं। पुणे में युद्ध में मारे गए सेनिकों की विधवा स्त्रियों के लिए आवास प्रस्तावित था और इसी जगह में राष्ट्रपति के लिए उनके कार्यकाल की समाप्ति के बाद सरकारी आवास का प्रस्ताव भी था बस इसी बात ने विरोधी दलों को सरकार के खिलाफ तलवारें भांजने का मौका दे दिया। हालांकि बाद में राष्ट्रपति के उस प्रस्तावित और विवादित जगह को छोड़ देने पर ही मामला थमा।
ऐसा नहीं है कि महिलाओं में नेतृत्व क्षमता में कोई कमी होती है ये बात इतिहास और वर्तमान बखूबी बयां करता है जेहन में ऐसे कई नाम एक साथ घूम जाएंगे जिन्होने अपने आप को पुरुषों की भीड़ के मुकाबले खूब बेहतर साबित किया है लेकिन अपवाद भी तो कोई चीज होती है । फिर चाहे वो व्यापार क्षेत्र, राजनीतिक, सामाजिक, कला या फिर खेल जगत हो सभी जगह एक बेहतर कल के लिए सराहनीय प्रयास हुए हैं ।
कहना होगा कि महिलाओं के सशक्तिकरण में जितना योगदान आरक्षण नाम की छड़ी दे सकती है उससे कहीं ज्यादा उन लोगों की मानसिक और सामाजिक प्रगति दे सकती है । आज के दौर में महिला सशक्तिकरण को खासतौर पर ग्लैमर वर्ल्ड़ की महिलाओं से जोड़कर देखा जाता है पर असल बात तो यह है कि आज भी उन्हे नुमाइश की चीज से कुछ अधिक बढ़ कर नहीं देखा जाता। अगर महिलाओं की आजादी और समानता की बात की जाए तो महानगरीय क्षेत्रों में बात सिर्फ उनके कपड़ों की सजावट और बनावट तक ही आकर रह जाती है । कहने भर को महिला मुख्यमंत्री, महिला राज्यपाल, महिला पार्टी अध्यक्ष, महिला राष्ट्रपति या फिर महिला पार्लियामेंट अध्यक्ष, असल में महिलाओं के लिए ही कोई विशेष कदम उठाते नहीं दिखते ।
एलेग्जेंण्ड़र ढिस्सा
इसके द्वारा मालूम हुआ कि देश की पहली महिला राष्ट्रपति होने का गौरव प्राप्त करने वाली पाटिल ने अपने पूरे कार्यकाल में सिर्फ विदेश यात्रा पर देश का 205 करोड़ धन लुटा दिया । हालांकि राष्ट्रपति ने किसी राष्ट्रीय महत्व के कार्य पर कोई निर्णय लिया हो याद नहीं आता किन्तु पहली महिला सेनाध्यक्ष, पहली उर्मदराज महिला वायुसेना सवार, पहली उर्मदराज महिला समुद्री बेड़े में यात्रा जैसे कारनामें अपने नाम दर्ज जरुर कर दिए हैं ।
अब जहां एक और देश की तमाम बड़ी छोटी राजनीतिक पार्टियां अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनवाने के लिए घिसी जा रही हैं एक मात्र महिला शासक (सर्वोच्च पद) ने महिलाओं की नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़ा कर दिया है। इस बात की तो दीगर चर्चा है कि महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों चाहे वो ग्राम पंचायत स्तर पर हो या फिर राज्य या देश के स्तर पर, निर्णय का अधिकार अधिकतम केसों में उनके पति या पिता पर ही रहता है या यूं कहें कोई पुरुष ही करता है ।
प्रामाणित कुछ यूं किया जा सकता है कि शांतिपूर्ण संपन्न दिल्ली नगर निगम के चुनावों में खड़ी कुल 277 महिला प्रत्याशियों में 8 तो बिल्कुल ही अनपढ़ थी बाकी भी हाईस्कूल या उससे कहीं थोड़ा ऊपर नीचे पढ़ी लिखी हुई थी ओर स्नातक स्तर तक के प्रत्याशियों का अनुपात तो सोच के स्तर से बिल्कुल ही कम निकला अब इन्ही में से तीन मेयर चुनी भी जा चुकी हैं। हालांकि एक स्नातक का भी आज के दौर में बौद्धिक स्तर पर कोई विशेष योगदान नहीं दिखता तो ये कम पढ़ी- लिखी महिलाएं कहां ब्लाक, राज्य और देश चलाने का दंभ भरे। ये लोग तो सीधे सीधे किसी पुरुष के निर्णयों पर निर्भर करेंगी।
एक सर्वे के अनुसार महिला शासित प्रदेशों में महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामले अधिक बढ़े हैं दिल्ली, पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां महिलाएं सबसे ज्यादा असुरक्षित है और तीनों ही राज्यों में महिला नेतृत्व कर रही हैं (उत्तरप्रदेश को छोड़ कर जहां हाल ही में तख्तापलट हुआ है, पर उतरप्रदेश ऐसे मामलों में हमेशा अव्वल दर्जे पर रहा है)। मुख्यमंत्री पद के अलावा महिलाएं कई राज्यों मे राज्यपाल जैसे पदों पर भी आसीन है पर वहां भी महिलाएं कटघरे में ही नजर आती हैं। ऊपर से महिला होने के बावजूद महिलाओं के साथ हुए ब्लात्कार पर सुश्री ममता बेनर्जी ने जिस तरीके का गैरजिम्मेदाराना बयान दिया था उसकी पुरजोर निंदा भी कम है । ओर किसी भी तरीके से मायावती , ममता बेनर्जी और शीला दीक्षित के द्वारा चलाए गए या चलाए जा रहे शासन को जायज नहीं ठहराया जा सकता।
राष्ट्रपति की यात्राओं में खर्च होने वाले पैसे की मुख्य वजह उनके परिवार का हर दौरे में साथ हो लेना है । ये कहीं ना कहीं समाज के उस ढ़ांचे का ही चाहा-अनचाहा पहलु हो सकता है जिसमें बंध कर महिलाएं अधिकतर केसों में अपने परिवार के साथ ही किसी कार्य को अंजाम देती है । राजनीतिक दौरे का पारिवारिकरण होना उसी मानसिकता का हिस्सा हो सकता है। वहीं हमारी पहली महिला राष्ट्रपति अपने पांच साल के कार्यकाल में किसी विशेष मुद्दे पर लिए निर्णय को लेकर तो चर्चा में नहीं रहीं (महिला सशक्तिकरण तो रहने ही दीजिए) पर कार्यकाल समाप्ति की ओर बढ़ते ही विदेश यात्रा और पुणे में उनके लिए बन रहे सरकारी आवास को लेकर खूब नकारात्मक चर्चा बटोर बैठीं। पुणे में युद्ध में मारे गए सेनिकों की विधवा स्त्रियों के लिए आवास प्रस्तावित था और इसी जगह में राष्ट्रपति के लिए उनके कार्यकाल की समाप्ति के बाद सरकारी आवास का प्रस्ताव भी था बस इसी बात ने विरोधी दलों को सरकार के खिलाफ तलवारें भांजने का मौका दे दिया। हालांकि बाद में राष्ट्रपति के उस प्रस्तावित और विवादित जगह को छोड़ देने पर ही मामला थमा।
ऐसा नहीं है कि महिलाओं में नेतृत्व क्षमता में कोई कमी होती है ये बात इतिहास और वर्तमान बखूबी बयां करता है जेहन में ऐसे कई नाम एक साथ घूम जाएंगे जिन्होने अपने आप को पुरुषों की भीड़ के मुकाबले खूब बेहतर साबित किया है लेकिन अपवाद भी तो कोई चीज होती है । फिर चाहे वो व्यापार क्षेत्र, राजनीतिक, सामाजिक, कला या फिर खेल जगत हो सभी जगह एक बेहतर कल के लिए सराहनीय प्रयास हुए हैं ।
कहना होगा कि महिलाओं के सशक्तिकरण में जितना योगदान आरक्षण नाम की छड़ी दे सकती है उससे कहीं ज्यादा उन लोगों की मानसिक और सामाजिक प्रगति दे सकती है । आज के दौर में महिला सशक्तिकरण को खासतौर पर ग्लैमर वर्ल्ड़ की महिलाओं से जोड़कर देखा जाता है पर असल बात तो यह है कि आज भी उन्हे नुमाइश की चीज से कुछ अधिक बढ़ कर नहीं देखा जाता। अगर महिलाओं की आजादी और समानता की बात की जाए तो महानगरीय क्षेत्रों में बात सिर्फ उनके कपड़ों की सजावट और बनावट तक ही आकर रह जाती है । कहने भर को महिला मुख्यमंत्री, महिला राज्यपाल, महिला पार्टी अध्यक्ष, महिला राष्ट्रपति या फिर महिला पार्लियामेंट अध्यक्ष, असल में महिलाओं के लिए ही कोई विशेष कदम उठाते नहीं दिखते ।
एलेग्जेंण्ड़र ढिस्सा
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